सूफी अम्बाप्रसाद का जन्म 1858 में मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न भटनागर परिवार में हुआ था।
जन्म से ही उनका दाहिना हाथ नहीं था। कोई पूछता, तो वे हंसकर कहते कि 1857 के संघर्ष में एक हाथ कट गया था। मुरादाबाद, बरेली और जालंधर में उन्होंने शिक्षा पायी। पत्रकारिता में रुचि होने के कारण कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी उन्होंने वकालत के बदले ‘जाम्मुल अमूल’ नामक समाचार पत्र निकाला। उनके विचार पढ़कर नवयुवकों में जागृति की लहर दौड़ने लगी।
सूफी जी विद्वान तो थे ही; पर बुद्धिमान भी बहुत थे। उन्हें पता लगा कि भोपाल रियासत में अंग्रेज अधिकारी जनता को बहुत परेशान कर रहा है। वे वेष बदलकर वहां गये और उसके घर में झाड़ू-पोंछे की नौकरी कर ली। कुछ ही दिन में उस अधिकारी के व्यवहार और भ्रष्टाचार के विस्तृत समाचार देश और विदेश में छपने लगे। अतः उसका स्थानांतरण कर दिया गया।
बौखलाकर उसने घोषणा की कि जो भी इस समाचारों को छपवाने वाले का पता बताएगा, उसे वे पुरस्कार देंगे। यह सुनकर सूफी जी सूट-बूट पहनकर पुरस्कार के लिए उसके सामने जा खड़े हुए। उन्हें देखकर वह चौंक गया। सूफी जी ने अंग्रेजी में बोलते हुए उसे बताया कि वे समाचार मैंने ही छपवाये हैं। उसका चेहरा उतर गया, फिर भी उसने अपने हाथ की घड़ी उन्हें दे दी।
1897 में उन पर शासन के विरुद्ध विद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उन्होंने अपना मुकदमा स्वयं लड़ा, जिसमें उन्हें 11 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। वहां से छूटकर वे फिर स्वाधीनता की अलख जगाने लगे। इस पर उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया।
जेल से छूटकर वे लाहौर आ गये और वहां से ‘हिन्दुस्तान’ नामक समाचार पत्र निकाला। जब वहां भी धरपकड़ होने लगी, तो वे अपने मित्रों के साथ नेपाल चले गये; पर शासन नेपाल से ही उन्हें पकड़कर लाहौर ले आया और पत्र निकालने के लिए उन पर मुकदमा चलाया। उनकी सारी पुस्तकें व साहित्य जब्त कर लिया गया; पर सूफी जी शासन की आंखों में धूल झोंककर ईरान चले गये और वहां से ‘आबे हयात’ नामक पत्र निकालने लगे। ईरान के लोग आदरपूर्वक उन्हें ‘आका सूफी’ कहते थे।
1915 में अंग्रेजों ने ईरान पर कब्जा करना चाहा। जिस समय शीराज पर घेरा डाला गया, तो ईरान के स्वतंत्रता प्रिय लोगों के साथ ही सूफी जी भी बायें हाथ में ही पिस्तौल लेकर युद्ध करने लगे; पर अंग्रेज सेना संख्या में बहुत अधिक थी और उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी पर्याप्त थे। अतः वे पकड़े गये और उन्हें कारावास में डाल दिया गया। अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाकर मृत्युदंड देना चाहते थे; पर सूफी जी ने उससे पूर्व ही 30 सितम्बर, 1915 को योग साधना द्वारा अपना शरीर छोड़ दिया।
थोड़े ही समय में यह समाचार सब ओर फैल गया। सूफी जी के प्रति लोगों में अत्यधिक श्रद्धा थी। अतः उनकी शवयात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। एक सुंदर स्थान पर उनको दफना कर समाधि बना दी गयी। उस स्थान पर आज भी ईरान के लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं।
(संदर्भ : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008)