श्री अनंत वासुदेव (बाबाराव) पुराणिक का जन्म 22 सितम्बर, 1931 को ग्राम हिंगणी (वर्धा, महाराष्ट्र) में एक पुरोहित श्री वासुदेव पुराणिक एवं श्रीमती यमुनाबाई के घर में हुआ था। आठ भाई और छह बहिनों वाला यह परिवार बहुत निर्धन था। बाबाराव पर अपनी मां का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा।
कक्षा छह की छमाही परीक्षा में वे गणित में फेल हो गये। इस पर गणित के अध्यापक घर आकर उन्हें पढ़ाने लगे; पर बाबाराव चंचल स्वभाव के थे। एक बार वे अध्यापक को आते देख चुपचाप बाहर निकल गये। रात को सात बजे वे घर आये, तो मां ने दरवाजा बंद कर दिया। काफी रोने-धोने के बाद मां ने बारह बजे दरवाजा खोला और तब दोनों ने मिलकर भोजन किया।
इसके बाद बाबाराव रुचि लेकर पढ़ने लगे और वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुए। कक्षा दस में फीस जुटाने के लिए उन्होंने एक महीने तक एक पुस्तक की दुकान पर दिन भर काम किया। वर्धा कॉमर्स कॉलिज से बी.कॉम और फिर प्रथम श्रेणी में एम.कॉम कर वे यवतमाल में प्राध्यापक हो गये।
बाबाराव बाल्यकाल में वर्धा में ही स्वयंसेवक बने। वर्धा निवासी, संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता तथा डा. हेडगेवार के सहयोगी श्री अप्पाजी जोशी का उन पर बहुत प्रभाव था। उनके मार्गदर्शन में उन्होंने वहां छह नयी शाखाएं प्रारम्भ कीं। उनके आग्रह पर ही वे 1964 में प्रचारक बने। वरिष्ठ प्रचारक श्री केशवराव गोरे और मोरोपंत पिंगले के लिए भी उनके मन में बहुत श्रद्धाभाव था।
उन्होंने प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग वर्धा से तथा द्वितीय व तृतीय वर्ष नागपुर से किया। प्रचारक बनने पर वे बिलासपुर विभाग तथा फिर विदर्भ प्रांत प्रचारक रहे। 1987-88 में उन्हें दक्षिण बिहार में सहप्रांत प्रचारक बनाया गया। फिर दक्षिण बिहार प्रांत प्रचारक, उत्तर बिहार प्रांत प्रचारक तथा बिहार क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख रहे।
बाबाराव सब तरह के लोगों से सम्बन्ध बना लेने में माहिर थे। 1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय वे नागपुर के केन्द्रीय कारागार में बंद थे; पर वहां रहते हुए भी वे कुछ गुप्त गतिविधियां चलाते रहे। 1975 के आपातकाल और संघ पर प्रतिबंध के समय भी उनके विरुद्ध वारंट था। एक गुप्तचर अधिकारी ने उन्हें पहचान कर पकड़ लिया। फिर उसने यह कहकर उन्हें छोड़ भी दिया कि तुम अच्छा काम कर रहे हो, इसलिए सावधान रहो और जाओ।
बाबाराव बहुत मितव्ययी स्वभाव के थे। उनकी दिनचर्या बहुत नियमित थी। वे प्रातः चार बजे उठकर, शौचादि से निवृत्त होकर इतना कठोर व्यायाम करते थे कि शरीर पसीने से भीग जाता था। इसके बाद वे स्नान करके ही प्रातः शाखा पर जाते थे। उनका कंठ भी बहुत अच्छा था। उन्हें बालपन से ही गीत-संगीत में रुचि थी। नागपुर में होने वाले संघ के कार्यक्रमों में वे प्रायः गीत गाते थे। उनकी आवाज भी बहुत बुलंद थी। उन्होंने कई गीतों की लय भी बनायी। उनका प्रिय गीत था –
ऋषि मुनि राजा प्रजा सभी ने, इस पर तन-मन वारा।
प्राणों से भी बढ़कर हमको, है यह भारत प्यारा।।
इसे गाते समय वे भाव विभोर हो जाते थे। वृद्धावस्था में वे छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव नगर स्थित अपने छोटे भाई रमाकांत के साथ रहने लगे। वर्ष 2014 में वहां के स्वयंसेवकों ने बाबाराव की अनुमति और जानकारी के बिना ही उनके नागरिक अभिनंदन का एक कार्यक्रम बना लिया। जब वे कार्यक्रम के लिए तैयार हो रहे थे, तब किसी ने उन्हें बताया कि आज आपका अभिनंदन होना है। इस पर वे नाराज हो गये और वहां जाने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सम्मान से अहंकार पैदा होता है, जो पतन का कारण बनता है। सभी कार्यकर्ताओं और परिजनों ने बहुत आग्रह किया; पर वे नहीं माने। ऐसे निरहंकारी व्यक्तित्व के धनी बाबाराव पुराणिक का दस जून, 2015 को राजनांदगांव में निधन हुआ।