Thursday, November 14, 2024
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धर्मरक्षक महाराणा भगवत सिंह मेवाड़

by SamacharHub
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भारतवर्ष में गत 1,400 वर्ष से मेवाड़ का सूर्यवंशी राजपरिवार हिन्दू धर्म, संस्कृति और सभ्यता का ध्वजवाहक बना हुआ है। 20 जुलाई, 1921 को जन्मे महाराणा भगवत सिंह जी इस गौरवशाली परम्परा के 75वें प्रतिनिधि थे।

महाराणा की शिक्षा राजकुमारों की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध मेयो काॅलेज तथा फिर इंग्लैंड में हुई। वे मेधावी छात्र, ओजस्वी वक्ता और शास्त्रीय संगीत के जानकार तो थे ही, साथ ही विभिन्न खेलों और घुड़सवारी में भी सदा आगे रहते थे। भारतीय टीम के सदस्य के रूप में उन्होंने अनेक क्रिकेट मैच खेले। उन्होंने उस समय की अत्यधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. की प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण कर फिल्लौर में पुलिस शिक्षण का पाठ्यक्रम पूरा किया। इसके बाद वे उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त के डेरा इस्माइल खां में गाइड रेजिमेंट में भी रहे थे।

महाराणा भूपाल सिंह के निधन के बाद 1955 में वे गद्दी पर बैठे। उनकी रुचि धार्मिक व सामाजिक कामों में बहुत थी। उन्होंने लगभग 60 लाख रु. मूल्य की अपनी निजी सम्पत्ति को महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन, शिव शक्ति पीठ, देवराजेश्वर जी आश्रम न्यास, महाराणा कुंभा संगीत कला न्यास, चेतक न्यास आदि में बदल दिया। मेधावी छात्रों के लिए उन्होंने महाराणा मेवाड़ पुरस्कार, महाराणा फतेह सिंह पुरस्कार तथा महाराणा कुंभा पुरस्कार जैसे कई पुरस्कार तथा छात्रवृत्तियों का भी प्रबंध किया। यद्यपि तब तक राजतंत्र समाप्त हो चुका था; पर जनता के मन में उनके प्रति राजा जैसा ही सम्मान था।

अपनी सम्पदा को सामाजिक कार्यों में लगाने के साथ ही महाराणा भगवत सिंह जी ने स्वयं को भी देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद वे इससे जुड़ गये और 1969 में सर्वसम्मति से परिषद के दूसरे अध्यक्ष बनाये गये। अगले 15 वर्ष तक इस पद पर रहते हुए उन्होंने अपनी सारी शक्ति हिन्दू धर्म के उत्थान में लगा दी। उन्होंने न केवल देश में, अपितु विदेशों में भी प्रवास कर वि.हि.प. के काम को सुदृढ़ किया। उनकी अध्यक्षता में जुलाई 1984 में न्यूयार्क में दसवां विश्व हिन्दू सम्मेलन हुआ, जिसमें 50 देशों के 4,700 प्रतिनिधि आये थे।

मुगल काल में राजस्थान के अनेक क्षत्रिय कुल भयवश मुसलमान हो गये थे; पर उन्होंने अपनी कई हिन्दू परम्पराएं छोड़ी नहीं थीं। 1947 के बाद उन्हें फिर से स्वधर्म में लाने का प्रयास संघ और वि.हि.प. की ओर से हुआ। महाराणा के आशीर्वाद से इसमें सफलता भी मिली। इसी हेतु वे एक बार दिल्ली के पास धौलाना भी आये थे। यद्यपि यहां सफलता तो नहीं मिली; पर बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान क्षत्रियों ने महाराणा का भव्य स्वागत किया था।

महाराणा ने पंजाब और असम से लेकर बंगलादेश और श्रीलंका तक के हिन्दुओं के कष्ट दूर करने के प्रयास किये। खालिस्तानी वातावरण के दौर में अमृतसर के विशाल हिन्दू सम्मेलन में हिन्दू-सिख एकता पर उनके भाषण की बहुत सराहना हुई। सात करोड़ हिन्दुओं को एकसूत्र में पिरोने वाली एकात्मता यज्ञ यात्रा में आयोजन से लेकर उसके सम्पन्न होने तक वे सक्रिय रहे।

1947 के बाद अधिकांश राजे-रजवाड़ों ने कांग्रेस के साथ जाकर अनेक सुविधाएं तथा सरकारी पद पाए; पर महाराणा इससे दूर ही रहे। उनके यशस्वी पूर्वज महाराणा प्रताप ने दिल्ली के बादशाह की अधीनता स्वीकार न करने की शपथ ली थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नेहरू जी ने ऐसे दृढ़वती वीर के वंशज भगवत सिंह जी का दिल्ली के लालकिले में सार्वजनिक अभिनंदन किया।

महाराणा ने संस्कृत के उत्थान, मठ-मंदिरों की सुव्यवस्था, हिन्दू पर्वों को समाजोत्सव के रूप में मनाने, हिन्दुओं के सभी मत, पंथ एवं सम्प्रदायों के आचार्यों को एक मंच पर लाने आदि के लिए अथक प्रयत्न किये। तीन नवम्बर, 1984 को उनके आकस्मिक निधन से हिन्दू समाज की अपार क्षति हुई।

थार की लता रुकमा मांगणियार

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