Sunday, November 24, 2024
hi Hindi

संगीत सम्राट पं. विष्णु नारायण भातखण्डे

by SamacharHub
1.1k views

आज जिस सहजता से हम शास्त्रीय संगीत सीख सकते हैं, उसे विकसित करने में पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का अप्रतिम योगदान है। उनका जन्म 10 अगस्त, 1860 (जन्माष्टमी) को मुंबई में हुआ था। उनकी शिक्षा पहले मुंबई और फिर पुणे में हुई। वे व्यवसाय से वकील थे तथा मुंबई में सॉलिसीटर के रूप में उनकी पहचान थी। संगीत में रुचि होने के कारण छात्र जीवन में ही उन्होंने श्री वल्लभदास से सितार की शिक्षा ली। इसके बाद कंठ संगीत की शिक्षा श्री बेलबागकर,मियां अली हुसैन खान तथा विलायत हुसैन से प्राप्त की।

पत्नी तथा बेटी की अकाल मृत्यु से वे जीवन के प्रति अनासक्त हो गये। उसके बाद अपना पूरा जीवन उन्होंने संगीत की साधना में ही समर्पित कर दिया। उन दिनों संगीत की पुस्तकें प्रचलित नहीं थीं। गुरु-शिष्य परम्परा के आधार पर ही लोग संगीत सीखते थे; पर पंडित जी इसे सर्वसुलभ बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि संगीत का कोई पाठ्यक्रम हो तथा इसके शास्त्रीय पक्ष के बारे में भी विद्यार्थी जानें।

वे देश भर में संगीत के अनेक उस्तादों व गुरुओं से मिले; पर अधिकांश गुरू उनसे सहमत नहीं थे। अनेक संगीतज्ञ तो अपने राग तथा बंदिशें सबको सुनाते भी नहीं थे। कभी-कभी तो अपनी किसी विशेष बंदिश को वे केवल एक बार ही गाते थे, जिससे कोई उसकी नकल न कर ले। ध्वनिमुद्रण की तब कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में पंडित जी इन उस्तादों के कार्यक्रम में पर्दे के पीछे या मंच के नीचे छिपकर बैठते थे तथा स्वरलिपियां लिखते थे। इसके आधार पर बाद में उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे।

आज छात्रों को पुराने प्रसिद्ध गायकों की जो स्वरलिपियां उपलब्ध हैं, उनका बहुत बड़ा श्रेय पंडित भातखंडे को है। संगीत के एक अन्य महारथी पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर भी इनके समकालीन थे। ये दोनों ‘द्विविष्णु’ के नाम से विख्यात थे। जहां पंडित पलुस्कर का योगदान संगीत के क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने में रहा, वहां पंडित भातखंडे क्रियात्मक और सैद्धांतिक दोनों पक्ष में सिद्धहस्त थे।

देश की भावी पीढ़ी को संगीत सीखना सुलभ हो सके, इसके लिए पंडित जी ने हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत पद्धति का गहन अध्ययन कर ‘स्वर मालिका’ नामक पुस्तक लिखी। रागों की पहचान सुलभता से हो सके,इसके लिए ‘थाट’ को आधार माना। इसी प्रकार कर्नाटक संगीत शैली के आधार पर ‘लक्षण गीतों’ का गायन प्रारम्भ किया।

पंडित जी ने अनेक संगीत विद्यालय प्रारम्भ किये। वे चाहते थे कि संगीत की शिक्षा को एक सुव्यवस्थित स्वरूप मिले। उनकी प्रतिभा को पहचान कर बड़ौदा नरेश ने 1916 में अपनी रियासत में संगीत विद्यालय स्थापित किया। इसके बाद ग्वालियर महाराजा ने भी इसकी अनुमति दी, जो आज ‘माधव संगीत महाविद्यालय’ के नाम से विख्यात है। 1926 में उन्होंने लखनऊ में एक विद्यालय खोला,जिसका नाम अब ‘भातखंडे संगीत विद्यालय’है। पंडित जी द्वारा बनाये गये पाठ्यक्रम को पूरे भारत में आज भी मान्यता प्राप्त है।

संगीत से सामान्य जनता को जोड़ने के लिए उन्होंने ‘अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन’प्रारम्भ किये। इसमें कोई भी अपनी कला का प्रदर्शन कर सकता था। इससे कई पीढ़ी के संगीतज्ञों को एक साथ मंच पर आने का अवसर मिला। 1933 में उनके पांव की हड्डी टूट गयी। इसके बाद उन्हें पक्षाघात भी हो गया। तीन वर्ष तक वे बीमारी से संघर्ष करते रहे; पर अंततः सृष्टि के अटल विधान की जीत हुई और पंडित जी का 19 सितम्बर 1936 (गणेश चतुर्थी) को देहांत हो गया। उनकी स्मृति में 1961 में उनके जन्म दिवस (जन्माष्टमी) पर भारत सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया।

(संदर्भ    : केन्द्र भारती जून 2009)

#हरदिनपावन

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद

SAMACHARHUB RECOMMENDS

Leave a Comment