आधुनिक भारत के विश्वकर्मा श्री मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितम्बर, 1861 को कर्नाटक के मैसूर जिले में मुदेनाहल्ली ग्राम में पण्डित श्रीनिवास शास्त्री के घर हुआ था।
निर्धनता के कारण विश्वेश्वरैया ने घर पर रहकर ही अपने परिश्रम से प्राथमिक स्तर की पढ़ाई की। जब ये 15 वर्ष के थे, तब इनके पिता का देहान्त हो गया। इस पर ये अपने एक सम्बन्धी के घर बंगलौर आ गये।
घर छोटा होने के कारण ये रात को मन्दिर में सोते थे। कुछ छात्रों को ट्यूशन पढ़ाकर इन्होंने पढ़ाई का खर्च निकाला। मैट्रिक और बी.ए. के बाद इन्होंने मुम्बई विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा सर्वोच्च स्थान लेकर उत्तीर्ण की। इस पर इन्हें तुरन्त ही सहायक अभियन्ता की नौकरी मिल गयी। उन दिनों प्रमुख स्थानों पर अंग्रेज अभियन्ता ही रखे जाते थे।
भारतीयों को उनका सहायक बनकर ही काम करना पड़ता था; पर विश्वेश्वरैया ने हिम्मत नहीं हारी। प्रारम्भ में इन्हें पूना जिले की सिंचाई व्यवस्था सुधारने की जिम्मेदारी मिली। इन्होंने वहाँ बने पुराने बाँध में स्वचालित फाटक लगाकर ऐसे सुधार किये कि अंग्रेज अधिकारी भी इनकी बुद्धि का लोहा मान गये। ऐसे ही फाटक आगे चलकर ग्वालियर और मैसूर में भी लगाये गये। कुछ समय के लिए नौकरी से त्यागपत्र देकर श्री विश्वेश्वरैया विदेश भ्रमण के लिए चले गये। वहाँ उन्होंने नयी तकनीकों का अध्ययन किया।
वहाँ से लौटकर 1909 में उन्होंने हैदराबाद में बाढ़ से बचाव की योजना बनायी। इसे पूरा करते ही उन्हें मैसूर राज्य का मुख्य अभियन्ता बना दिया गया। उनके काम से प्रभावित होकर मैसूर नरेश ने उन्हें राज्य का मुख्य दीवान बना दिया। यद्यपि उनका प्रशासन से कभी सम्बन्ध नहीं रहा था; पर इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक जनहित के काम किये। इस कारण वे नये मैसूर के निर्माता कहे जाते हैं। मैसूर भ्रमण पर जाने वाले ‘वृन्दावन गार्डन’ अवश्य जाते हैं। यह योजना भी उनके मस्तिष्क की ही उपज थी।
विश्वेश्वरैया ने सिंचाई के लिए कृष्णराज सागर और लौह उत्पादन के लिए भद्रावती का इस्पात कारखाना बनवाया।मैसूर विश्वविद्यालय तथा बैंक ऑफ़ मैसूर की स्थापना भी उन्हीं के प्रयासों से हुई। वे बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। वे एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। वे किसी कार्यक्रम में समय से पहले या देर से नहीं पहुँचते थे। वे अपने पास सदा एक नोटबुक और लेखनी रखते थे। जैसे ही वे कोई नयी बात वे देखते या कोई नया विचार उन्हें सूझता, वे उसे तुरन्त लिख लेते।
विश्वेश्वरैया निडर देशभक्त भी थे। मैसूर का दशहरा प्रसिद्ध है। उस समय होने वाले दरबार में अंग्रेज अतिथियों को कुर्सियों पर बैठाया जाता था, जबकि भारतीय धरती पर बैठते थे। विश्वेश्वरैया ने इस व्यवस्था को बदलकर सबके लिए कुर्सियाँ लगवायीं। उनकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए शासन ने 1955 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। शतायु होने पर उन पर डाक टिकट जारी किया गया। जब उनके दीर्घ एवं सफल जीवन का रहस्य पूछा गया, तो उन्होंने कहा – मैं हर काम समय पर करता हूँ। समय पर खाता, सोता और व्यायाम करता हूँ। मैं क्रोध से भी सदा दूर रहता हूँ। 101 वर्ष की आयु में 14 अप्रैल, 1962 को उनका देहान्त।