उड़ीसा के काया ग्राम में जन्मा बालक ज्योतिन्द्रनाथ मुखर्जी बचपन से ही बहुत साहसी था। उसे खतरों से खेलने में मजा आता था। व्यायाम से उसने अपनी देह सुडौल बना ली थी। उसे घोड़े की सवारी का भी शौक था। जब वह किशोर था, तो एक बार उसके गाँव के पास जंगलों में एक बाघ आ गया। वह मौका पाकर पशुओं को मार देता था। लोगों को लगा कि यदि उसे न मारा गया, तो वह गाँव में घुसकर मनुष्यों को भी मारने लगेगा।
गाँव वालों ने एक दिन बाघ को मारने का निश्चय कर लिया। हाथ में कटार लिये ज्योतिन्द्र और बन्दूक लिये उसका ममेरा भाई भी एक झाड़ी में छिप गये। सब लोगों ने हाँका लगाया। इससे बाघ के आराम में बाधा पड़ी। वह उसी झाड़ी में आराम कर रहा था, जहाँ ज्योतिन्द्र खड़ा था। बाघ बाहर निकलकर जोर से दहाड़ा। ज्योतिन्द्र और बाघ कुछ देर तक एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर देखते रहे। फिर उसने ज्योतिन्द्र पर हमला बोल दिया। ज्योतिन्द्र घबराया नहीं। उसने बायें हाथ से बाघ की गरदन जकड़ ली और दायें हाथ से उस पर कटार के वार करने लगा।
यह देखकर गाँव के अन्य लोग डरकर भाग गये। ज्योतिन्द्र का भाई भी संकट में था। गोली चलाने पर वह बाघ और जतीन में से किसी को भी लग सकती थी। अन्ततः बाघ ने हार मान ली। घावों से घायल होकर उसने वहीं दम तोड़ दिया। ज्योतिन्द्र भी बुरी तरह घायल हो गया। इससे उसकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। लोग उसे बाघा जतीन कहने लगे।
आगे चलकर बाघा जतीन अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों की टोली में शामिल हो गये। उन्होंने बालासोर के जंगलों में अपना ठिकाना बनाया। वहाँ से समुद्र निकट था। उन्हें समाचार मिला था कि मेवेरिक नामक जहाज से जर्मनी से भारी मात्रा में शस्त्रास्त्र क्रान्तिकारियों के लिए आ रहे हैं। उसी की प्रतीक्षा में अपने चार साथियों के साथ वे वहाँ डट गये।
पर पुलिस को भी इसकी भनक मिल गयी। पुलिस अधिकारी टैगर्ट के नेतृत्व में उन्होंने इन नवयुवक क्रान्तिकारियों को घेर लिया। जतीन के साथियों ने उनसे चले जाने का आग्रह किया; पर बाघा जतीन ने पलायन से स्पष्ट मना कर दिया। इतना ही नहीं, उनके दो साथी 20 किलोमीटर दूर जंगल में थे। उन्हें सूचना देने के लिए सब लोग पैदल ही चल दिये।
भूख के मारे सबका बुरा हाल था। उन्होंने एक मल्लाह से कुछ खिलाने का आग्रह किया; पर उसने धर्म-भ्रष्ट होने के भय से इन ब्राह्मण युवकों को भोजन नहीं कराया। जैसे-तैसे वे अपने साथियों के पास पहुँचे और उन्हें साथ लेकर वापस चल दिये। उधर टैगर्ट शस्त्रों से सज्ज पुलिसबल और सर्चलाइट लेकर उनकी तलाश में था। 9 सितम्बर 1915 को उनकी मुठभेड़ हो गयी।
भारी गोलाबारी में चित्तप्रिय वहीं बलिदान हो गया। बाघा जतीन और मनोरंजन को भी कई गोलियाँ लगीं। शेष साथियों को जतीन ने भाग जाने का आदेश दिया। जतीन ने बेहोशी की हालत में पानी माँगा। मनोरंजन किसी तरह गिरता-पड़ता अपनी धोती भिगोकर पानी लाया। यह देखकर टैगर्ट भी द्रवित हो उठा। उसने जतीन को अपने हैट में लाकर पानी पिलाया।
होश में आने पर पुलिस ने उनसे साथियों के नाम पूछे; पर वे चुप रहे। उन्हें बालासोर के अस्पताल में भर्ती किया गया, जहाँ अगले दिन 10 सितम्बर, 1915 को उनका देहान्त हो गया।
(10 सितम्बर/बलिदान-दिवस )