स्वतन्त्र भारत के इतिहास में 7 नवम्बर, 1966 का दिन बड़ा महत्वपूर्ण है।
इस दिन राजधानी दिल्ली में संसद भवन के सामने गोवंश की रक्षा की माँग करते हुए 10 लाख से अधिक गोभक्त एकत्र हुए थे। इतना बड़ा प्रदर्शन भारत तो क्या, शायद विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुआ था; पर इन गोभक्तों को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि जिस प्रकार कसाई गोमाता पर अत्याचार करता है, उसी प्रकार कांग्रेस सरकार ने इन गोभक्तों पर अत्याचार किये।
जिन दिनों स्वतन्त्रता प्राप्ति का आन्दोलन चल रहा था, तब गान्धी जी प्रायः कहते थे कि मेरे लिए गोरक्षा का महत्व स्वतन्त्रता से भी अधिक है। देश के स्वतन्त्र होते ही पहला आदेश सम्पूर्ण गोवंश की रक्षा का होगा; पर यह सब कागजी बातें सिद्ध हुईं। गोहत्या रोकना तो दूर, शासन ने मशीनी कत्लखाने खुलवाने पर कमर कस ली। इन सबके मूल में थे प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू, जो स्वयं को जन्म से दुर्घटनावश हिन्दू, संस्कारों से मुसलमान और विचारों से ईसाई मानते थे। कोढ़ में खाज की तरह वे रूस की कम्युनिस्ट पार्टी और व्यवस्था से भी अत्यधिक प्रभावित थे।
गोवंश की रक्षा के लिए मुगल शासन से लेकर अंग्रेज शासन तक हिन्दू वीरों ने बहुत बलिदान दिये। पंजाब में नामधारी सिखों का तो मुस्लिमों से झगड़ा ही इसी बात को लेकर होता था। वे बूचड़खाने पर हमला बोल कर उसे नष्ट कर देते थे या वहाँ जा रही गायों को कसाइयों से छीन लेते थे; पर जब स्वतन्त्रता मिलने और संविधान में प्रावधान होने के बाद भी गोहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगा, तो हिन्दुओं को मजबूर होकर आन्दोलन का मार्ग अपनाना पड़ा।
इसके अन्तर्गत ‘सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान समिति’ का गठन किया गया। इसमें देश भर के सभी पन्थों, सम्प्रदायों के साधु, सन्त और धार्मिक, सामाजिक नेता एक म॰च पर एकत्र हुए। 7 नवम्बर, 1966 को गोमाता की जय, भारत माता की जय, गोहत्या बन्द हो के नारे लगाते हुए दिल्ली की सड़कों पर जनसमुद्र उमड़ पड़ा। इससे इन्दिरा गान्धी के कांग्रेस शासन की नींव हिलने लगी। गृहमन्त्री गुलजारीलाल नन्दा की सहानुभूति आन्दोलनकारियों के साथ थी; पर कुछ कांग्रेसी उनका महत्व कम करना चाहते थे।
ऐसे लोगों ने षड्यन्त्रपूर्वक इस आन्दोलन को बदनाम करने के लिए कुछ गुण्डों को भीड़ में घुसा दिया। इनमें निर्धारित वेष पहने बिना कुछ पुलिसकर्मी भी थे। इन्दिरा गान्धी और उनके प्रिय कांग्रेसी इस आन्दोलन के नेतृत्व करने वाले भारतीय जनसंघ, विश्व हिन्दू परिषद्, रामराज्य परिषद्, हिन्दू महासभा, आर्य समाज आदि संगठनों को बदनाम करना चाहते थे। यहाँ तक कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक और इस आन्दोलन के प्राण श्री गुरुजी की हत्या करना चाहते थे।
इन लोगों ने आन्दोलनकारियों पर पथराव कर दिया। इससे प्रदर्शन में शामिल युवक भी भड़क गये। इसका लाभ उठाकर पुलिस ने लाठी और फिर गोली चला दी। सड़क पर गिरे साधुओं को उठाकर गोली मारी गयी। फलतः हजारों लोग घायल हुए और सैकड़ों मारे गये। पुलिस ने उन्हें ट्रकों में लादकर विद्युत शवदाह गृहों में फूँक दिया।
उस दिन जैसा भीषण अत्याचार गोभक्तों पर हुआ, उसने चंगेज खाँ, हलाकू, अहमदशाह अब्दाली, नादिरशाह और जलियाँवाला बाग के अत्याचारों को भी पीछे छोड़ दिया। इसमें सबसे कष्ट की बात यह थी कि यह सब अपने देश के शासन ने ही किया था।