श्री मधुकर लिमये का जन्म 1927 ई. में ग्राम पूर्णगढ़ (रत्नागिरी, महाराष्ट्र) में अपने ननिहाल में श्रीमती गिरिजा देवी की गोद में हुआ था। उनका अपना घर इसी तहसील के गोलप ग्राम में था।
उनके पिता श्री विश्वनाथ लिमये मुंबई उच्च न्यायालय में वकील थे। उनका कल्याण में साबुन का बड़ा कारखाना भी था। सात भाई-बहिनों में मधु जी चौथे नंबर पर थे। उनके दोनों बड़े भाई भी स्वयंसेवक थे। एक भाई श्री केशव लिमये पांच वर्ष प्रचारक भी रहे।
मधु जी की शिक्षा मुंबई के मराठा मंदिर, विल्सन व रुइया कॉलिज से हुई। 1948 में उन्होंने गणित तथा सांख्यिकी विषय लेकर प्रथम श्रेणी में बी.एस-सी. किया। मुंबई वि.वि. में सर्वोच्च स्थान पाने पर उन्हें स्वर्ण पदक मिला। गणित में तज्ञता के कारण मित्रों में वे ‘रामानुजन् द्वितीय’ कहलाते थे। यद्यपि वे सब विषयों में योग्य थे; पर भौतिक तथा रसायन शास्त्र में प्रयोगशाला में काफी समय लगने से संघ कार्य में बाधा आती थी। अतः उन्होंने ये विषय नहीं लिये।
मधु जी को प्रचारक बनाने में उनके दोनों भाइयों के साथ ही तत्कालीन महाराष्ट्र प्रांत प्रचारक बाबाराव भिड़े तथा श्री गुरुजी की बड़ी भूमिका रही। वे तो 1946 में ही प्रचारक बनना चाहते थे; पर बाबाराव ने उन्हें पहले स्नातक होने को कहा। यद्यपि प्रतिबंध के कारण वे स्नातक होने पर भी प्रचारक नहीं बन सके। दिसम्बर 1948 में कल्याण में सत्याग्रह कर वे चार मास जेल में रहे। वहां से छूटने और फिर प्रतिबंध हटने के बाद 1949 में वे प्रचारक बने।
पहले वर्ष उन्होंने ठाणे जिले में पालघर, डहाणू तथा उम्बरगांव तहसीलों में काम किया। 1950 में पुणे के संघ शिक्षा वर्ग से मधु जी सहित दस प्रचारक पूर्वोत्तर भारत भेजे गये। उन दिनों पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं की बड़ी दुर्दशा थी। कोलकाता से असम वहीं होकर जाना था। अतः क्षेत्र प्रचारक एकनाथ जी ने सबके सामान में से नेकर, पेटी, टोपी आदि रखवा लिये। सबसे कहा गया कि वे ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ के कार्यकर्ता हैं तथा असम में सेवा कार्य के लिए जा रहे हैं। यात्रा के दौरान उन्हें आपस में बात भी नहीं करनी थी।
1949 में प्रतिबंध हटने के बाद संघ की अर्थव्यवस्था बिगड़ गयी थी। अतः सभी प्रचारकों से ट्यूशन या अध्यापन आदि करते हुए अपना खर्च चलाने को कहा गया। अतः मधु जी ने कम्युनिस्ट विरोधी एक साहित्यिक संस्था में काम किया। इसी दौरान उन्होंने पुणे वि.वि. से निजी छात्र के नाते गणित में एम.एस-सी. भी कर ली। इस बार भी उन्हें वि.वि. में प्रथम स्थान मिला।
मधु जी का प्रथम और द्वितीय वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग तो 1946 और 47 में हो गया था; पर तृतीय वर्ष के लिए वे बारह साल बाद 1959 में ही जा सके। क्योंकि प्रांत प्रचारक ठाकुर रामसिंह जी हर बार यह कहकर उन्हें रोक देते थे कि यहां के वर्गों में तुम्हारा रहना जरूरी है।
पूर्वोत्तर भारत में कई भाषा तथा बोलियां प्रचलित हैं। मधु जी ने वे सीखकर उनमें कई पुस्तकें लिखीं। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया। 1998 में लखनऊ में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें इसके लिए सम्मानित भी किया।
असम में भाषा विवाद, घुसपैठ, मिशनरियों द्वारा संचालित अलगाववादी हिंसक आंदोलन सदा चलते रहते हैं। ऐसे माहौल में मधु जी ने संघ का काम किया। असम में वे जिला, विभाग, सहप्रांत प्रचारक तथा फिर असम क्षेत्र की कार्यकारिणी के सदस्य रहे।
बचपन में एक बार उनके घुटने में भारी चोट लगी थी, जो उन्हें आजीवन परेशान करती रही। शास्त्रीय संगीत में उनकी बहुत रुचि थी; पर वे कहते थे कि यह शौक अगले जन्म में पूरा करूंगा। प्रचारक रहते हुए भी वे अपने परिजनों से लगातार सम्पर्क बनाये रखते थे। चार नवम्बर, 2015 को पुणे में अपने एक सम्बन्धी के पास रहते हुए ही उनका निधन हुआ।