1897 में गुजरात के एक सम्पन्न परिवार में जन्मे प्रोफेसर जयकृष्ण प्रभुदास भन्साली उन लोगों में से थे, जो अपने संकल्प की पूर्ति के लिए शरीर को कैसा भी कष्ट देने को तैयार रहते थे।
मुम्बई विश्वविद्यालय से एम.ए. कर वे वहीं प्राध्यापक हो गये। 1920 में गांधी जी से सम्पर्क के बाद वे साबरमती आश्रम में ही रहने लगे। गांधी जी के प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘हरिजन’ के भी वे सम्पादक रहे, जो आगे चलकर ‘यंग इंडिया’ में बदल गया।
गांधी जी से अत्यधिक प्रभावित होने के बाद भी वे आश्रम की गतिविधियों से सन्तुष्ट नहीं थे। इसलिए उन्होंने संन्यास लेने का मन बनाया। इसके लिए स्वयं को तैयार करने के लिए उन्होंने 55 दिन का उपवास किया; पर इससे उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और उनकी स्मृति लुप्त हो गयी।
ठीक होने पर गांधी जी की अनुमति से वे 1925 में केवल एक वस्त्र लेकर नंगे पैर हिमालय की यात्रा पर निकल गये। इस दौरान उन्होंने केवल नीम की पत्तियाँ खायीं। उन्होंने कुछ दिन मौन रखा; पर एक बार मौन टूटने पर उन्होंने पीतल के तार से मुँह सिलवा लिया। अब वे केवल आटे को पानी में घोलकर पीने लगे। उत्तर भारत की यात्रा कर वे 1932 में सेवाग्राम लौट आये।
1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय कई स्थानों पर अंग्रेजों ने भारी दमन किया। इनमें महाराष्ट्र का आष्टी चिमूर भी था। 16 अगस्त को क्रान्तिकारियों ने थाने पर हमलाकर छह पुलिस वालों को मार दिया। अगले दिन आयी कुर्ग रेजिमेण्ट ने दस लोगों को मौत के घाट उतार दिया। पाँच सैनिक भी मारे गये। 16 से 19 अगस्त तक चिमूर स्वतन्त्र रहा।
इस बीच 1,000 सैनिकों ने चिमूर को घेर लिया। 19 से 21 अगस्त तक उन्होंने दमन का जो नंगा नाच वहाँ दिखाया, वह अवर्णनीय है। सैनिकों को लूटपाट से लेकर हर तरह का कुकर्म करने की पूरी छूट थी। प्रोफेसर भन्साली ने जब यह सुना, तो उन्होंने वायसराय की कौंसिल के सदस्य श्री एम.एस.अणे से त्यागपत्र देने को कहा; पर वे तैयार नहीं हुए। इस पर प्रोफेसर भन्साली दिल्ली में उनके घर के बाहर उपवास पर बैठ गये। उन्हें गिरफ्तार कर सेवाग्राम लाया गया, तो वे चिमूर जाकर उपवास करने लगे।
पुलिस उन्हें पकड़कर वर्धा लायी; पर वे बिना कुछ खाये पिये पैदल ही चिमूर की ओर चल दिये। इस प्रकार उन्होंने 63 दिन का उपवास किया, जो 12 जनवरी, 1943 को समाप्त हुआ। अन्ततः सेंट्रल प्रोविन्स के मुख्यमन्त्री डा. खरे तथा श्री अणे को चिमूर जाना पड़ा।
आष्टी चिमूर कांड में सात क्रान्तिकारियों को फाँसी तथा 27 को आजीवन कारावास हुआ। स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी प्रोफेसर भन्साली चैन से नहीं बैठे। हैदराबाद में रजाकारों की गतिविधियों के विरुद्ध उन्होंने 19 दिन का उपवास किया। 1950 में वे नागपुर के पास टिकली गाँव में बस गये और ग्रामीणों की सेवा करने लगे। राजनीति में उनकी कोई रुचि नहीं थी।
1958 में विश्व की बड़ी शक्तियों को अणु विस्फोट से विरत करने के लिए उन्होंने 66 दिन का उपवास किया। नक्सली हिंसा के विरुद्ध आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में भी उन्होंने यात्रा की। शरीर दमन के प्रति अत्यधिक आग्रही प्रोफेसर भन्साली ने 14 अक्तूबर, 1982 को नागपुर में अपना शरीर त्याग दिया। इनकी स्मृति को स्थायी करने के लिए मेरठ (उत्तर प्रदेश) में एक बड़े मैदान का नाम ‘भन्साली मैदान’ रखा गया।