Sunday, December 22, 2024
hi Hindi
ganesh shankar

क्रान्ति और सद्भाव के समर्थक गणेशशंकर विद्यार्थी 

by SamacharHub
231 views
श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 25 अक्तूबर, 1890 को हुआ था।
इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे जिला फतेहपुर (उ.प्र.) के हथगाँव के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता श्री जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना, मध्य प्रदेश के गंगवली कस्बे में बस गये। वहीं गणेश को स्थानीय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती करा दिया गया।
प्रारम्भिक शिक्षा वहाँ से लेने के बाद गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई खण्डित हो गयी; लेकिन तब तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अन्त तक जारी रहा। विवाह के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर कानपुर भाईसाहब के पास आ गये।
1908 यहाँ उन्हें कानपुर में एक बैंक में 30 रु. महीने की नौकरी मिल गयी। एक साल बाद उसे छोड़कर विद्यार्थी जी पी.पी.एन.हाईस्कूल में अध्यापन कार्य करने लगे। यहाँ भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा। वे इसे छोड़कर प्रयाग आ गये और वहाँ ‘सरस्वती’ एवं ‘अभ्युदय’ नामक पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया; पर यहाँ उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। अतः वे फिर कानपुर लौट गये और 19 नवम्बर, 1918 से कानपुर से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सामग्री से भरपूर प्रताप समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। अतः प्रताप की लोकप्रियता बढ़ने लगी। दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 1920 में विद्यार्थी जी ने प्रताप को साप्ताहिक के बदले दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।
इतनी बाधाओं के बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, विद्यार्थी जी उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। इतना ही नहीं, वे क्रान्तिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे। क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में पहले तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया; पर फिर वे पाकिस्तान की माँग करने लगे। भगतसिंह आदि की फांसी का समाचार अगले दिन 24 मार्च, 1931 को देश भर में फैल गया। लोगों ने जुलूस निकालकर शासन के विरुद्ध नारे लगाये। इससे कानपुर में मुसलमान भड़क गये और उन्होंने भयानक दंगा किया। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े।
दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनकी लाश के बदले केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से वे पहचाने गये। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब धर्मान्धता की बलिवेदी पर भारत माँ के सपूत गणेशशंकर विद्यार्थी का बलिदान हुआ।

 

पूर्वोत्तर के भगीरथ वसंतराव भट्ट

SAMACHARHUB RECOMMENDS

Leave a Comment