1971 में भारत और पाकिस्तान के युद्ध में पंजाब के शकरगढ़ क्षेत्र में बसंतर नदी के पास हुई लड़ाई में 21 वर्षीय सेंकड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने प्राणाहुति दी। अरुण का जन्म 14 अक्तूबर, 1950 को पुणे में हुआ था।
उनके दादा पहले विश्वयुद्ध में लड़े थे, तो पिताजी दूसरे विश्वयुद्ध और 1965 की लड़ाई में। अरुण युद्ध के किस्से सुनते हुए ही बड़े हुए थे। इसी परम्परा के अनुसार 1967 में उन्होंने भी फौज में जाने का निर्णय लिया।
जब 1971 का युद्ध छिड़ा, तो अरुण और उसके कई साथी महाराष्ट्र के अहमदनगर में युवा सैन्य अधिकारी कोर्स कर रहे थे; पर उन्हें कोर्स अधूरा छोड़कर अपनी रेजिमेंट में पहुंचने को कहा गया। अरुण के माता-पिता दिल्ली में रहते थे। वे कुछ समय निकालकर वहां गये और उनका आशीर्वाद लिया। सामान बांधते हुए उन्होंने एक गोल्फ स्टिक और एक नीला सूट भी रख लिया। पिताजी के पूछने पर बताया कि जीतने के बाद जो डिनर पार्टी होगी। उसमें मैं ये सूट पहनूंगा और लाहौर के मैदान में गोल्फ भी खेलूंगा।
जब वे मोर्चे पर पहंुचे, तो कमांडर हनूत सिंह ने उन्हें कोर्स के अधूरेपन के कारण आगे नहीं जाने दिया। अरुण ने उनसे निवेदन किया कि यदि मैं इस युद्ध में शामिल नहीं हुआ, तो पता नहीं फिर मुझे मौका मिले या नहीं। इस पर कर्नल हनूत सिंह ने उन्हें एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ यह कहकर भेजा कि वह उनका हर आदेश मानेगा। 16 दिसम्बर को पाकिस्तानी टैंकों को आगे बढ़ता देख कर्नल चीमा ने पीछे खबर भेजी, तो कैप्टेन मल्होत्रा, लेफ्टिनेंट अहलावत तथा सेंकड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को टैंकों के साथ वहां भेजा गया।
उस क्षेत्र में बारूदी सुरंगे बिछी हुई थीं। उनसे बचते हुए कुछ ही देर में उन्होंने सात टैंक ढेर कर दिये। तभी गोला लगने से अहलावत का टैंक लपटों में घिर गया। इसी समय अरुण के टैंक पर भी गोला लगा। इससे उस पर तैनात वरिष्ठ अधिकारी शहीद हो गये। अब टैंक की कमान अरुण के पास आ गयी। टैंक को जलता देखकर कैप्टेन मल्होत्रा ने उन्हें बाहर निकलने को कहा; पर अरुण ने भाग रहे एक पाकिस्तानी टैंक का पीछा कर उसे नष्ट कर दिया।
तभी वहां कुछ और पाकिस्तानी टैंक आ गये। इससे युद्ध तेज हो गया। कैप्टेन मल्होत्रा ने फिर अरुण से टैंक छोड़ने को कहा। अरुण ने यह कहकर अपना संपर्क रेडियो बंद कर दिया कि मेरे टैंक की गन अभी ठीक है। इसी समय कैप्टेन मल्होत्रा का टैंक भी बेकार हो गया। अब सारी जिम्मेदारी अरुण पर ही थी। उन्होंने घूम-घूमकर शत्रु के चार टैंक नष्ट कर दिये। अब उनका निशाना पांचवें टैंक पर था। तभी दोनों टैंकों ने एक साथ गोले दागे। इससे दोनों में आग लग गयी। पाकिस्तानी टैंक वालों ने कूदकर जान बचा ली। अरुण के साथी गनमैन नत्थूसिंह भी निकल गये; पर अरुण वहीं शहीद हो गये। अरुण को इस वीरता के लिए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।
2001 में अरुण के पिता अवकाश प्राप्त बिग्रेडियर एम.एल.खेत्रपाल पाकिस्तान स्थित अपनी जन्मभूमि सरगोधा गये। इस यात्रा के दौरान लाहौर में ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नासेर उनसे मिलने आये और घर ले जाकर उनका भरपूर आतिथ्य किया। चलते समय उन्होंने बड़े संकोच से बताया कि 16 दिसम्बर के युद्ध में मेरे टैंक के गोले से ही अरुण शहीद हुए थे। मेरे मन में उसकी वीरता के लिए बहुत सम्मान है। वह दीवार की तरह वहां डटा रहा। उसके कारण ही वह मोर्चा भारत जीत सका। मैं उसे और आपको भी सेल्यूट करता हूं, क्योंकि आपके पालन-पोषण से ही वह इतना बहादुर बना।
अरुण खेत्रपाल सबसे कम आयु के ‘परमवीर चक्र’ विजेता हैं। उनकी स्मृति में देहरादून के सैन्य प्रशिक्षण केन्द्र आई.एम.ए. में एक भवन एवं परेड मैदान का नाम ‘खेत्रपाल’ रखा गया है।