उक्यांग नागवा मेघालय के एक क्रान्तिकारी वीर थे। 18 वीं शती में मेघालय की पहाड़ियों पर अंग्रेजों का शासन नहीं था। वहाँ खासी और जयन्तियाँ जनजातियाँ स्वतन्त्र रूप से रहती थीं। इस क्षेत्र में आज के बांग्लादेश और सिल्चर के 30 छोटे-छोटे राज्य थे। इनमें से एक जयन्तियापुर था।
अंग्रेजों ने जब यहाँ हमला किया, तो उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्तर्गत जयन्तियापुर को पहाड़ी और मैदानी भागों में बाँट दिया। इसी के साथ उन्होंने निर्धन वनवासियों को धर्मान्तरित करना भी प्रारम्भ किया। राज्य के शासक ने भयवश इस विभाजन को मान लिया; पर जनता और मन्त्रिपरिषद ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने राजा के बदले उक्यांग नागवा को अपना नेता चुन लिया। उक्यांग ने जनजातीय वीरों की सेना बनाकर जोनोई की ओर बढ़ रहे अंग्रेजों का मुकाबला किया और उन्हें पराजित कर दिया।
पर अंग्रेजों की शक्ति असीम थी। उन्होंने 1860 में सारे क्षेत्र पर दो रुपये गृहकर ठोक दिया। जयन्तिया समाज ने इस कर का विरोध किया। उक्यांग नागवा एक श्रेष्ठ बाँसुरीवादक भी थे। वह वंशी की धुन के साथ लोकगीत गाते थे। इस प्रकार वह अपने समाज को तीर और तलवार उठाने का आह्नान करते थे। अंग्रेज इसे नहीं समझते थे; पर स्थानीय लोग इस कारण संगठित हो गये और वेे हर स्थान पर अंग्रेजों को चुनौती देने लगे।
अब अंग्रेजों ने कर वसूली के लिए कठोर उपाय अपनाने प्रारम्भ किये; पर उक्यांग के आह्नान पर किसी ने कर नहीं दिया। इस पर अंग्रेजों ने उन भोले वनवासियों को जेलों में ठूँस दिया। इतने पर भी उक्यांग नागवा उनके हाथ नहीं लगे। वह गाँवों और पर्वतों में घूमकर देश के लिए मर मिटने को समर्पित युवकों को संगठित कर रहे थे। धीरे-धीरे उनके पास अच्छी सेना हो गयी।
उक्यांग ने योजना बनाकर एक साथ सात स्थानों पर अंग्रेज टुकड़ियों पर हमला बोला। सभी जगह उन्हें अच्छी सफलता मिली। यद्यपि वनवासी वीरों के पास उनके परम्परागत शस्त्र ही थे; पर गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के कारण वे लाभ में रहे। वे अचानक आकर हमला करते और फिर पर्वतों में जाकर छिप जाते थे। इस प्रकार 20 माह तक लगातार युद्ध चलता रहा।
अंग्रेज इन हमलों और पराजयों से परेशान हो गये। वे किसी भी कीमत पर उक्यांग को जिन्दा या मुर्दा पकड़ना चाहते थे। उन्होंने पैसे का लालच देकर उसके साथी उदोलोई तेरकर को अपनी ओर मिला लिया। उन दिनों उक्यांग बहुत घायल थे। उसके साथियों ने इलाज के लिए उन्हें मुंशी गाँव में रखा हुआ था। उदोलोई ने अंग्रेजों को यह सूचना दे दी।
फिर क्या था ? सैनिकों ने साइमन के नेतृत्व में मुंशी गाँव को चारों ओर से घेर लिया। उक्यांग की स्थिति लड़ने की बिल्कुल नहीं थी। इस कारण उसके साथी नेता के अभाव में टिक नहीं सके। फिर भी उन्होंने समर्पण नहीं किया और युद्ध जारी रखा। अंग्रेजों ने घायल उक्यांग को पकड़ लिया।
उन्होंने प्रस्ताव रखा कि यदि तुम्हारे सब सैनिक आत्मसमर्पण कर दें, तो हम तुम्हें छोड़ देंगे; पर वीर उक्यांग नागवा ने इसे स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचार भी उनका मस्तक झुका नहीं पाये। अन्ततः 30 दिसम्बर, 1862 को उन्होंने मेघालय के उस वनवासी वीर को सार्वजनिक रूप से जोनोई में ही फाँसी दे दी।