श्री कृष्णराव एवं श्रीमती इंदिरा के सबसे बड़े पुत्र मुरलीधर कृष्णराव (बाबूराव) चौथाइवाले का जन्म 27 जुलाई, 1922 को बारसी (जिला सोलापुर, महाराष्ट्र) में हुआ था। यह परिवार मूलतः यहीं का निवासी था; पर बाबूराव के पिता पहले कलमेश्वर और फिर नागपुर में अध्यापक रहे। बाबूराव के छह में से तीन भाई (शरदराव, शशिकांत तथा अरविन्द चौथाइवाले) प्रचारक बने।
जिन दिनों वे कक्षा नौ में पढ़ते थे, तब कलमेश्वर में डा. हेडगेवार आये। उन्होंने सबसे संघ की प्रतिज्ञा लेने को कहा। बाबूराव ने इसके लिए पिताजी से पूछा। पिताजी यद्यपि स्वयंसेवक नहीं थे; पर डा. हेडगेवार तथा वीर सावरकर के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। अतः उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी।
कक्षा 12 उत्तीर्ण कर बाबूराव दो वर्ष छिन्दवाड़ा में प्रचारक रहे। इसके बाद नागपुर में अध्यापन करते हुए क्रमशः बी.ए, बी.एड तथा एम.ए पूर्ण किया। छात्र जीवन में ही वे तृतीय वर्ष कर चुके थे। पूणे, तुम्कूर तथा फगवाड़ा के संघ शिक्षा वर्गों में वे मुख्यशिक्षक होकर भी गये। 1948 के प्रतिबंध में बाबूराव ने भूमिगत रहते हुए सत्याग्रह का संचालन किया। 1975 में प्रतिबंध लगते ही उन्होंने श्री गुरुजी के व्यक्तिगत सामान (पत्र, कमंडल आदि) को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की। इसके बाद वे जेल गये और प्रतिबंध समाप्ति तक मीसा में बंद रहे।
बाबूराव का घर नागपुर में महाल संघ कार्यालय के पास ही था। 1954 से वे सरसंघचालक श्री गुरुजी के पत्र-व्यवहार संभालने लगे। वे आने वाले हर पत्र पर दिनांक डालकर प्राप्ति की सूचना देते थे। श्री गुरुजी जो भी पत्र लिखते, बाबूराव एक रजिस्टर में उसकी हस्त-प्रतिलिपि तैयार करते थे। ऐसे लगभग 11,000 पत्रों की प्रतिलिपि से ‘पत्ररूप श्री गुरुजी’ ग्रन्थ बनाया गया।
जहां श्री गुरुजी हर पत्र का उत्तर स्वयं लिखते थे, वहां तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब बाबूराव को उसका उत्तर बता देते थे। फिर बाबूराव ही उसे लिखते थे। बालासाहब विजयादशमी या अन्य महत्वपूर्ण भाषणों की विषय वस्तु भी उन्हें बताते थे। बाबूराव उसे भी लिखकर उन्हें दे देते थे।
श्री गुरुजी के प्रति बाबूराव के मन में दैवत्व का भाव था। गुरुजी और फिर बालासाहब के नागपुर निवास के समय वे कार्यालय से ही विद्यालय आते-जाते थे। बाकी दिनों में भी वे विद्यालय से सीधे कार्यालय आकर रात में ही घर जाते थे। श्री गुरुजी उनके घर को अपना दूसरा घर मानते थे। जब उन्हें कुछ विशेष चीज खाने की इच्छा होती थी, तो वे समाचार भेजकर उनके घर पर वह बनवा लेते थे। इस प्रकार बाबूराव और श्री गुरुजी एकात्मरूप थे।
डा. आबाजी थत्ते की बीमारी के दौरान उन्होंने कुछ समय श्री गुरुजी के साथ प्रवास भी किया था। बालासाहब के देहांत के बाद उन्होंने ‘मेरे देखे हुए श्री बालासाहब देवरस’ पुस्तक लिखी। सबकी इच्छा थी कि वे श्री गुरुजी पर भी एक पुस्तक लिखें। अतः उन्होंने प्रवास कर बहुत सी महत्वपूर्ण सामग्री एकत्र की; पर जब वे अपने पुत्र के घर संभाजीनगर (औरंगाबाद) में इसे लिखने बैठे, तो दो अध्याय लिखने के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और चार फरवरी, 1996 को वे चल बसे। आगे चलकर जब श्री रंगाहरि ने श्री गुरुजी पर पुस्तक लिखी, तो उसमें बाबूराव द्वारा एकत्रित सामग्री का भरपूर उपयोग किया।
(संदर्भ : नागपुर में शरदराव चौथाइवाले से वार्ता)
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