वकील साहब से एक मर्डर हो गया
अब..
लाश को ठिकाने लगाने के लिए वकील साहब ने 8/10 वकील इकट्ठे किये..
और माथे पर रुमाल लपेटकर जनाज़े का इंतजाम किया।
जनाजे में लाश रख दी गयी।
सभी वकील अपने माथे पर रुमाल लपेटकर जनाजे को अपने कंधे पर लेकर कब्रस्तान की ओर चल पडे।
रास्ते मे जनाज़ा देखकर कुछ अनजान लोग भी कंधा देने आने लगे।
वकील साहब ने मौका देखकर जनाजे का कंधा अनजान लोग को थमा दिया और एक-एक करके बारी-बारी से सभी वकील रफूचक्कर हो गये!
कब्रस्तान तक एक भी वकील नहीं गया!
फंस गये वो अनजान लोग जो दिल के भोले थे!
किसी को नहीं मालूम कि ये किसकी लाश थी ।
लेकिन अब उस लाश को लेकर चलना उनकी मजबूरी बन गया।
इस कहानी का किसान आंदोलन से सीधा-सीधा लेना-देना है..!
जो राकेश टिकैट, 4 महीने पहले तक, इसी किसान बिल की तारीफ करते नहीं थक रहे थे,
वह विपक्षियों द्वारा दिए गए नोटों से भरे सूटकेसों के लालच में आकर, किसान आंदोलन में कूद पड़े !
और जिन लोगों ने नोटों से भरे सूटकेस दिए थे वह तो खिसक लिए।
अब आंदोलन चलाना उनकी मजबूरी रह गई है,
क्योंकि अगर आंदोलन आगे नहीं चलाते हैं तो “धोबी का कुत्ता.. ना घर का, ना घाट का” वाली स्थिति हो जाएगी !
राहत इंदौरी ने दोजख से एक ताजी शायरी भेजी है, गौर फरमाइयेगा:
*”वो तब नहीं झुका गुजरात में,
जब तुम्हारा निजाम दिल्ली में था…
तुम इन फर्जी आंदोलनों से क्या झुका पाओगे
जब वह खुद तख्त-ए-निजाम है!*