Tuesday, April 1, 2025
hi Hindi
Bio on SH

अजातशत्रु श्री बद्रीलाल दवे…

by SamacharHub
170 views

श्री बद्रीलाल दवे का जन्म एक जनवरी, 1901 को बड़नगर (उज्जैन, म.प्र.) में हुआ था। वे सब ओर ‘दा साहब’ के नाम से प्रसिद्ध थे। अपनी शिक्षा पूर्ण कर कुछ समय तक वे अध्यापक और फिर विद्यालयों के निरीक्षक रहे; पर सामाजिक कार्य में रुचि होने के कारण बंधन वाली नौकरी में उनका मन नहीं लगा और उन्होंने खेती को अपनी आजीविका का साधन बना लिया।

दा साहब बिर्गोदा के जमींदार थे; पर वे अपने क्षेत्र के लोगों को पुत्र की तरह स्नेह करते थे। उन्होंने कभी जबरन लगान वसूल नहीं किया। प्रायः लगान और अन्न इतना कम आता था कि उससे उनके परिवार का भी काम नहीं चल पाता था। फिर भी वे सदा संतुष्ट ही रहते थे। 1946 में गेरुआ नामक बीमारी लगने से गेहूं की फसल नष्ट हो गयी। ऐसे में दा साहब ने गांव वालों को अपने परिवार की तरह पाला। यद्यपि इससे उनकी अपनी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गयी; पर उन्होंने इसकी चिन्ता नहीं की।

1947 में देश को स्वाधीनता मिली और जमींदारी प्रथा समाप्त हो गयी। इससे दा साहब की सभी जमीनें भी उनके हाथ से चली गयीं। उनका सम्पर्क का क्षेत्र बहुत विस्तृत था; पर उन्होंने कभी उससे लाभ नहीं उठाया। घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर भी उन्होंने अपने पुत्रों की नौकरी के लिए कभी कहीं सिफारिश नहीं की और न ही अपने कष्टों की बात किसी से कही।

सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते 1946 में वे कांग्रेस के माध्यम से बड़नगर पालिका के प्रथम अध्यक्ष बने। 1947 में ग्वालियर राज्य में स्वायत्त शासन स्थापित होने पर उन्होंने धारा सभा का चुनाव लड़ा और विजयी हुए; पर कुछ समय बाद वे समझ गये कि कांग्रेस की नीतियां उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं है। तब तक उनका सम्पर्क संघ से हो गया था। अतः वे कांग्रेस छोड़कर संघ के काम में रम गये।

पहले उन्हें नगर कार्यवाह और फिर विभाग संघचालक का दायित्व दिया गया। भैया जी दाणी, एकनाथ रानाडे, बाबा साहब आप्टे आदि वरिष्ठ प्रचारक उनकी योग्यता एवं जनसम्पर्क से बहुत प्रभावित थे।

आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर उन्होंने अपने घरेलू खर्च कम कर दिये; पर संघ कार्य के लिए प्रवास करते रहे। रेल से उतर कर वे अपना सामान उठापर पैदल ही कार्यालय या कार्यकर्ता के घर चले जाते थे। 1948 में प्रतिबंध लगने पर बड़नगर में 44 साथियों के साथ सत्याग्रह कर वे जेल गये। 1975 में भी वे पूरे समय तक मीसा के अन्तर्गत भैरोंगढ़ जेल में निरुद्ध रहे।

दा साहब अजातशत्रु थे। किसी को भी कष्ट होने पर वे उसकी सहायता को तत्पर हो जाते थे। अतः हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी उन्हें अपना अभिभावक समझते थे। जब भी मुस्लिम बहुल अड़ान मुहल्ले या नुरिया नदी के तटवर्ती क्षेत्र में बाढ़ आयी, सब लोग निःसंकोच भाव से उनके घर में शरण लेते थे।

1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर उन्हें उसका प्रांतीय अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। जब डा0 मुखर्जी के नेतृत्व में कश्मीर आंदोलन हुआ, तो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तारी दी।

राजनीतिक दायित्व होते हुए भी दा साहब का मन संघ के कार्य में ही अधिक लगता था। अतः वहां की उपयुक्त व्यवस्था होते ही वे फिर संघ कार्य में जुट गये। 1954 में उन्हें प्रांत संघचालक का दायित्व दिया गया। यद्यपि वे स्वयंसेवक होने को ही सबसे बड़ा दायित्व मानते थे। अतः उन्होंने इंदौर के पंडित रामनारायण शास्त्री को इस जिम्मेदारी के लिए तैयार किया और स्वयं उज्जैन विभाग संघचालक के नाते काम करने लगे। ऐसे कर्मठ, अहंकारशून्य एवं सर्वप्रिय दा साहब का 26 जनवरी, 1993 को देहांत हुआ।

 

SAMACHARHUB RECOMMENDS

Leave a Comment