गाडगे बाबा का जन्म एक अत्यन्त निर्धन परिवार में 23 फरवरी, 1876 को ग्राम कोतेगाँव (अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनका बचपन का नाम डेबूजी था। निर्धनता के कारण उन्हें किसी प्रकार की विद्यालयी शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी। कुछ बड़े होने पर उनके मामा चन्द्रभान जी उन्हें अपने साथ ले गये। वहाँ वे उनकी गाय चराने लगे। इस प्रकार उनका समय व्यतीत होने लगा।
प्रभुभक्त होने के कारण डेबूजी ने बहुत पिछड़ी मानी जाने वाली गोवारी जाति के लोगों की एक भजनमंडली बनायी, जो रात में पास के गाँवों में जाकर भजन गाती थी। वे विकलांगों, भिखारियों आदि को नदी किनारे एकत्र कर खाना खिलाते थे। इन सामाजिक कार्यों से उनके मामा बहुत नाराज होते थे।
जब वे 15 साल के हुए, तो मामा उन्हें खेतों में काम के लिए भेजने लगे। वहाँ भी वे अन्य मजदूरों के साथ भजन गाते रहते थे। इससे खेत का काम किसी को बोझ नहीं लगता था। 1892 में कुन्ताबाई से उनका विवाह हो गया; पर उनका मन खेती की बजाय समाजसेवा में ही लगता था।
उन्हें बार-बार लगता था कि उनका जन्म केवल घर-गृहस्थी की चक्की में पिसने के लिए ही नहीं हुआ है। 1 फरवरी, 1905 को उन्होंने अपनी माँ सखूबाई के चरण छूकर घर छोड़ दिया। घर छोड़ने के कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम गोविन्दा रखा गया।
घर छोड़ते समय उनके शरीर पर फटी धोती, हाथ में फूटा मटका एवं एक लकड़ी थी। अगले 12 साल उन्होंने भ्रमण में बिताये। इस दौरान उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर रूपी षडरिपुओं को जीतने का अभ्यास भी किया। उनके बाल और दाढ़ी बढ़ गयी। कपड़े भी फट गये; पर उनका ध्यान इस ओर नहीं था। अब लोग उन्हें ‘गाडगे बाबा’ कहने लगे।
समाज सेवा के लिए समर्पित गाडगे बाबा ने 1908 से 1910 के बीच ऋणमोचन नामक तीर्थ में दो बाँध बनवाये। इससे ग्रामीणों को हर साल आने वाली बाढ़ के कष्टों से राहत मिली। 1908 में ही उन्होंने एक लाख रु0 एकत्रकर मुर्तिजापुर में एक विद्यालय तथा धर्मशाला बनवायी।
1920 से 1925 के दौरान बाबा ने पंढरपुर तीर्थ में चोखामेला धर्मशाला, मराठा धर्मशाला और धोबी धर्मशाला बनवायी। फिर एक छात्रावास भी बनवाया। इन सबके लिए वे जनता से ही धन एकत्र करते थे। 1930-32 में नासिक जाकर बाबा ने एक धर्मशाला बनवायी। इसमें तीन लाख रुपये व्यय हुआ।
बाबा जहाँ भी जाते, वहाँ पर ही कोई सामाजिक कार्य अवश्य प्रारम्भ करते थे। इसके बाद वे कोई संस्था या न्यास बनाकर उन्हें स्थानीय लोगों को सौंपकर आगे चल देते थे। वे स्वयं किसी स्थान से नहीं बँधे। अपने जीवनकाल में विद्यालय, धर्मशाला, चिकित्सालय जैसे लगभग 50 प्रकल्प उन्होंने प्रारम्भ कराये। इनसे सभी जाति और वर्गों के लोग लाभ उठाते थे। पंढरपुर की हरिजन धर्मशाला बनवाकर उन्होंने उसे डा. अम्बेडकर को सौंप दिया।
अपने प्रवास के दौरान बाबा गाडगे अन्धश्रद्धा, पाखंड, जातिभेद, अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों तथा गरीबी उन्मूलन के प्रयास भी करते थे। चूँकि वे अपने मन, वचन और कर्म से इसी काम में लगे थे, इसलिए लोगों पर उनकी बातों का असर होता था। अपने सक्रिय सामाजिक जीवन के 80 वर्ष पूर्णकर 20 दिसम्बर, 1956 को बाबा ने देहत्याग दी। महाराष्ट्र के विभिन्न तीर्थस्थानों पर उनके द्वारा स्थापित सेवा प्रकल्प आज भी बाबा की याद दिलाते हैं।