वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर का जन्म 19 सितम्बर, 1867 को महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी रियासत के कोलगाव में हुआ था।
जन्मपत्री के अनुसार 16 वें वर्ष में उनकी मृत्यु का योग था; पर ईश्वर की कृपा से उन्होंने 102 की आयु पाई। वेदपाठी परिवार होने से उनके कानों में सदा वेदमंत्र गूंजते रहते थे।
मामा श्री पेंढारकर के घर सावंतवाड़ी में रहकर उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली। 1887 में एक अंग्रेज वेस्ट्रॉप ने वहां चित्रशाला प्रारम्भ की। श्रीपाद ने यहां चित्र और मूर्तिकला का रुचिपूर्वक गहन अध्ययन किया।
22 वर्ष की अवस्था में विवाह के बाद वे मुंबई आ गये। यहां उनकी कला परिमार्जित हुई तथा अनेक पुरस्कार मिले। इसके साथ वे संस्कृत अध्ययन की अपनी परम्परा भी निभाते रहे। वेदों के बारे में लिखे उनके लेख लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ में प्रकाशित किये। 1900 ई. में हैदराबाद आकर वे आर्य समाज से जुड़े और ऋषि दयानंद के कई ग्रन्थों का अनुवाद किया। वेदों में बलिप्रथा नहीं है, इसे सिद्ध करते हुए उन्होंने कई लेख लिखे। उन्होंने अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त को ‘वैदिक राष्ट्रगीत’ बताकर एक पुस्तिका लिखी। कुछ समय बाद वे थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी बने।
श्रीपाद जी की स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता को देखकर अंग्रेजों ने अपने मित्र हैदराबाद के निजाम को इसे रोकने को कहा। अतः वे गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) आकर चित्रकला तथा वेद पढ़ाने लगे। उनके एक लेख के लिए कोल्हापुर में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला, जिसमें तीन वर्ष की सजा सुनाई गयी। वे चुपचाप वहां से निकल गये; पर हरिद्वार पुलिस ने उन्हें हथकड़ी और बेड़ी डालकर बिजनौर जेल में बंद कर दिया। रेल से कोल्हापुर ले जाते समय रास्ते भर लोगों ने उनका भव्य सत्कार किया। कोल्हापुर न्यायालय मे।