Monday, November 25, 2024
hi Hindi

मारवाड़ के रक्षक वीर दुर्गादास राठौड़

by SamacharHub
726 views

अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले।

उस समय मारवाड़ में राजा जसवन्त सिंह (प्रथम) शासक थे। एक बार उनके एक मुँहलगे दरबारी राईके ने कुछ उद्दण्डता की। दुर्गादास से सहा नहीं गया। उसने सबके सामने राईके को कठोर दण्ड दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें निजी सेवा में रख लिया और अपने साथ अभियानों में ले जाने लगे। एक बार उन्होंने दुर्गादास को ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’कहा; पर वीर दुर्गादास सदा स्वयं को मारवाड़ की गद्दी का सेवक ही मानते थे।

उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस अभियान के दौरान नवम्बर1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गयी। इसी बीच उनकी रानी आदम जी ने पेशावर में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया। जसवन्त सिंह के मरते ही औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था।

इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टांक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहां छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास ने हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्होेंने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुनदास खीची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी।

अब दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करने लगे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा; पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को राजा बनाने का लालच देकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह के लिए तैयार किया; पर दुर्भाग्यवश यह योजना भी पूरी नहीं हो पायी।

अगले 30 साल तक वीर दुर्गादास इसी काम में लगे रहे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके प्रयास सफल हुए। 20 मार्च, 1707 को महाराजा अजीत सिंह ने धूमधाम से जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया। वे जानते थे कि इसका श्रेय दुर्गादास को है, अतः उन्होंने दुर्गादास से रियासत का प्रधान पद स्वीकार करने को कहा;पर दुर्गादास ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उनकी अवस्था भी अब इस योग्य नहीं थी। अतः वे अजीतसिंह की अनुमति लेकर उज्जैन के पास सादड़ी चले गये। इस प्रकार उन्होंने महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा उन्हें दी गयी उपाधि ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ को सत्य सिद्ध कर दिखाया। उनकी प्रशंसा में आज भी मारवाड़ में निम्न पंक्तियाँ प्रचलित हैं –

माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास।
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास।।

 

उपन्यासकार बाबू देवकीनन्दन खत्री

SAMACHARHUB RECOMMENDS

Leave a Comment